शर्मिंदा
तमाम नाकामियों के बाद भी जिन्दा हूँ मैं खामोश हूँ क्योंकि बहुत शर्मिंदा हूँ मैं तूफ़ान में परवाज़ भरता परिन्दा हूँ मैं रोज़ सवेरे उठता हूँ एक नई शुरुआत तलाशता हुआ अपने माज़ी की राख में से एक चिंगारी कुरेदता हुआ जो कामयाबी की लौ बन जाये, एक आफताब दहकता हुआ आईना बस अक्स दिखाता है, इसमें दिखती पूरी सच्चाई नहीं यादों से मन बहलता तो है, मिटती इनसे तन्हाई नहीं अब भी मुझमें कुछ "मैं" जैसा बाकी है क्या, या खो गयी है मेरी खुदाई कहीं? खोज रहा हूँ न जाने क्या, किस मंज़िल का लूँ रास्ता शायद खुद से दुबारा मुलाकात करना हूँ मैं चाहता जान लूँ जो खुद को मैं तो, मंज़िल खुद ही दिखा देगी रास्ता Image courtesy: https://www.istockphoto.com/photos/sad-man-sitting-in-sunset