अग्निपथ / trial by fire
कितने दिन बीत गये , ऐसे ही चलते चलते,
सारा वक़्त बीत गया यूँ ही ढलते ढलते
आज सोचता हूँ कि कहाँ चूक हो गयी,
“कल कर लेंगे”, करते करते घड़ी टूट गयी
बीते वक़्त की कीमत को आज पहचाना,
जब आगे बढ़ चुका सारा ज़माना
पर हार मानना हम नहीं जानते,
“कुछ नहीं हो सकता अब”, ऐसा नहीं मानते
अनुभव से सीखकर फिर से उठेंगे,
हौसले हमारे ऐसे नहीं टूटेंगे
पछतावा हार की निशानी है,
पर हमने मंज़िल पा लेने की ठानी है
सीधी कर अपनी रीढ़, कस कर अपनी कमर,
पुनः अपने ध्येय की ओर हो अग्रसर
तू चला चल ऐ पथिक, न कर ज़माने की परवाह,
अच्छा बुरा बिना सोचे पकड़ ले अपनी राह
कल जब तू हारा था, तब भी था अकेला,
और कल जीत में भी न मिलेगा कोई मेला
क्यूँकि तेरा यह संघर्ष खुद से है, औरों से नहीं
-पहचान तेरी तुझ से ही है, हार या जीत के दौरों से नहीं
Imagecredits: https://www.freeimages.com/photo/fire-flames-1160238
Expressed your thoughts in true manner, I would like to suggest A gnipath for this lovely poem.
ReplyDeleteThank you, really like your suggestion for the name
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