दूरियाँ
कभी दूरियाँ मिटाती हुयी सिलवटें थी बिस्तर पर,
कभी करवटों में सिमट जाती है रात कोई!
बिन बोले भी कभी समझ जाते थे जो इशारे हमारे,
अमूमन अब अनसुनी कर देते हैं कही हुयी बात कोई!
नींद को दावत देते हुये गुज़रती हैं कई रातें,
सपनों से पहले सुबह आ जाती है - ढूँढती हुयी रात कोई!
न ही दूर हैं न ही बिछड़े हैं हम, बात बस इतनी सी है-
कि ज़िन्दगी की दौड़ में छूटता सा गया है हाथ कोई!
एक ही कमरे में बैठे, अपने अपने फोंनों को तक रहे हैं,
दिल से पूछो, तुम ही कहो- है ये भी क्या साथ कोई?
जब खुद ही चुप हैं, गुमसुम हैं, खोये से हुये हैं -
तो हमें मिलाने के लिए क्या कर लेगी कायनात कोई!
आओ कुछ पल खामोशी के साथ बितायें, धड़कनों को सुनते हुये
नज़रों को मिलाकर, जगा दें कब से सोये हुये जज़्बात कोई!
इंतज़ार किसका है मेरे हमदम, वक्त़ की रफ्तार थमती नहीं,
दुबारा भरपूर जीने के लिए, ज़रूरी है क्या वारदात कोई?
अप्रतिम
ReplyDeleteक्या बात है !
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