मोड़
एक मुड़ती हुई सड़क थी, किनारे एक पेड़ था,
फैला हुआ समंदर, किनारे रेत का ढेर था,
मैं भी थी वहीँ कहीं, किसी टेहनी पर चींटी सी -
या लहरों सी खेलती हुई, या सब मेरे ख्वाबों का खेल था!
सोचती हूं कि उस मोड़ के आगे क्या और दुनिया बाकी है?
फिर याद आता है कि ये पेड़, ये समंदर, सभी तो मेरे साथी हैं,
क्या करूँ हिम्मत कुछ नया ढूँढने की, मोड़ से आगे बढ़ने की?
या रोक लूँ यहीं खुद को, मेरी उम्र के लिए यही काफी हैं!
रुई से बादल तो इशारा कर रहे हैं कि हिम्मत करो, आगे बढ़ो!
पुराने आराम की आदत है तुम्हें, पर नए हालातों से मत डरो!
कुछ दिन बीतते ही नए दोस्त बना लोगे तुम, फिर वही आराम पा लोगे तुम,
आसमाँ को देखते रहना, ये हर मोड़ पर मिलेगा, बस तुम आगे बढ़ो!
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