ऐसे ही कभी
ऐसे ही बैठे बैठे, यूँ ही कभी, जब आंखें नम हो आती हैं
सोचती हूँ - कि थक गई हूँ या फिर कुछ दर्द सा उभर रहा है!
किसी ने कुछ कहा भी नहीं, किसी ने कुछ किया भी नहीं -
तब फिर ऐसा क्या है जो जी को यूँ अखर रहा है?
धुंधली धुंधली सी ठेस है शायद, मन की गहरी परतों से झांकती हुयी,
छुपता छुपाता सा वाक्या कोई यादों की दलदल से निकल रहा है।
पूरा किस्सा तो याद नहीं आता अब, पर बात होगी बड़ी ही कोई,
कि आज भी लगता है, जैसे मेरे हाथ से तेरा हाथ फिसल रहा है!
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